शरद पूर्णिमा की रात
क्षितिज में ढला थका सूरज
और बादलों की ओट से
झांके पूनम का चांद
दूधिया, धवल, शीतल
बिखेरे चांदनी,
उतर आया
मेरा मन-प्राण।
मेरी उलझी जिंदगी
मेरी सारी बेचैनियों पर
लेप लगाने मरहम बन
मेरे हिस्से का झरोखा
जोड़ता है मुझे तुमसे
जुगनुओं से टिमटिमाते तारे
हैं साक्षी तेरे- मेरे स्नेह के।
कोलाहल भरे जग में
कोई स्वर नहीं
कोई आवाज नहीं
बरस रहा अमृत
शनैः-शनैः
शरद पूर्णिमा की पावन रात्रि
मुग्धा सी मै ताकूं तुम्हे।
सर्द हवाओं का आलिंगन
बदले मौसम, भीनी खुशबू
तुलसी के चौरे पर
संध्या -दीप जला
आशा की लौ संग
प्रकाशित हुआ मेरा मन।
0 comments