वायदे बहुत किये तुमने
ख़्वाब सतरंगी भी दिखाये
स्वछंद नील गगन के तले।
मुद्दतों से आवाज़े गूँज रही फ़िज़ा में
नेपथ्य से, उत्थान की...
नेपथ्य से, उत्थान की...
खेल,रंगमंच पर,जैसे परछाईयों की।
आह ! पर किनारों पर बँधी रही
जैसे कश्तियाँ मज़बूत डोर से...
जैसे कश्तियाँ मज़बूत डोर से...
ताकि ले भी न पाये हिलोरें सहज़...
अवहेलनाओं के पीछे खड़ी रही
हर चोट से दिल को तराश दिया
रेत सा अंतस्थ शुष्क हुआ।
साथ तो दो कभी खुशी से
अफ़सानाों का ग़म भूल जाऊँ ।
हवाएँ कबतक चुप रहती
बरबस 'हम' का आवरण उड़ा ले गयीं
सच्चाई 'मैं' की उजागर हुई ।
0 comments