कैसा सावन आयो!
सोच रही मैं खोल यादों की पिटारी
न पड़े झुले इस साल
निर्जन है हरियाली
सखि री कैसा सावन आयो री
सावन ने अपना जादू खोया
गाऊँ कैसे मैं सावन के गीत
बाहर की हवा हुयी क़ातिल
महामारी कोरोना से होकर भयातुर
चार दिवारी में घुट -घुट कर रहना
घन-घोर घटायें भी देख मन घबराये
बरसे तो लाये नदियों में उफान
गांवों और शहर में बाढ़
सखि री कैसा सावन आयो री
नहीं देख पायी मंदिरों में शिव का श्रृंगार
हरी-हरी चुड़ियाँ नहीं हैं बाज़ार में
लगे हैं प्रतिबंध चारों ओर
जी रहे हैं सभी घुटते -पिसते हर वक़्त
अबकी बार दम घोटें है सावन
आंखों में बेबसी मन में चीत्कार
दुरियाँ अब पड़ने लगी भारी
नयनों के कोरों से बहता ऑंसू
नितांत अकेला है मन
आज मेरी कविता में टीस है
सखि री कैसा सावन आयो री!
0 comments