अरमानों का गुल्लक

by - March 03, 2021



सारे अरमानों को सहेजती रही
बचपन से ही,
हर रोज एक ख्वाब,भरती रही
छोटी सी माटी के गुल्लक में
सिक्के की तरह एक पर एक
खनकती गुल्लक तो, खिलखिलाती मैं

कहने को तो सब मेरा है
मेरा घर,मेरे सपने ,मेरे अपने,
सब की खुशी पर कुर्बान
होते -होते अरसा गुज़र गया
और निराशा की धूल गुल्लक पर जमती गयी

लम्हे फिसलते गए
ख़ुद को ही भूल गई...
मिली मुझे निराशा की गोधूलि
धरा और आसमान जैसा
अब कुछ भी नहीं रहा

गुल्लक मेरा
हंसा विदुप्र हंसी
क्यों तालाश न पायी
खुद की खुशी
अपनी अपेक्षाओं और हसरतों को क्यों
संजोकर कर रखती रही !पर क्या मालूम तुम्हें
अरमानों के खोटे सिक्के दुनिया में चलते नहीं।

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