हम तुम जुदा न होते...
यह कविता अमर उजाला समाचार पत्र में प्रकाशित हुई है।
मेरे मन की नगरी में
अट्टालिकायों को छूकर गुज़र
गया प्रेम का बादल बिन बरसे
गुरुत्वाकर्षण बल के विरुद्ध
सप्तरंगी झरने मन रंगते हैं
प्यास नहीं बुझाते ...
जलती सिगरेट की चिंगारी
गुनाहों को नहीं जलाती
दो अर्ध वृत्त को
जोड़ने की ख़्वाइश
में मैं जीती रही ...
जैसे घोंसले में बैठी बुलबुल अकेली
पर उसे भी अपने परों पर यकीन था
सप्तपदी के मंत्रों पर
प्रीत का राग बेमानी हुआ
दरमयां फासला बढ़ता गया
अगर जुबां चुप रहती
और अँखियाँ पश्चताप में बोलती
आज आईने के गर्द पर,
अश्क़ अपनी मैं नहीं देखती
हम तुम जुदा न होते...
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